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बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

अनसुनी प्रार्थना


   प्रेरित पौलुस की एक तीव्र इच्छा थी, कि उसके संगी यहूदी भी प्रभु यीशु मसीह को पहचान जाएं, उसका अंगीकार कर लें, चाहे इसके लिए उसे आप ही मसीह से श्रापित क्यों ना होना पड़े। इस विषय में उसने लिखा: "कि मुझे बड़ा शोक है, और मेरा मन सदा दुखता रहता है। क्योंकि मैं यहां तक चाहता था, कि अपने भाईयों, के लिये जो शरीर के भाव से मेरे कुटुम्बी हैं, आप ही मसीह से शापित हो जाता" (रोमियों 9:2-3)। अपनी जात-भाईयों की भलाई की कामना करने के बाद भी उसके संगी यहूदियों ने प्रत्येक स्थान पर उसका और प्रभु यीशु तिरस्कार किया।

   उद्धार के विषय को लेकर पौलुस द्वारा लिखी गई उसकी सबसे उत्कृष्ट पत्री के मध्य भाग में उसने यहूदियों के प्रति अपनी इस लालसा और उससे संबंधित उसकी अनसुनी प्रार्थना की व्यथा को बड़े स्पष्ट शब्दों में लिखा है। इसी खण्ड में पौलुस ने इस बात का भी अंगीकार किया कि यहूदियों द्वारा प्रभु यीशु केतिरस्कार का प्रमाण यह हुआ कि गैर-यहूदियों ने प्रभु को स्वीकार कर लिया। इस बात पर विचार करते हुए पौलुस इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि चाहे यहूदियों ने परमेश्वर का तिरस्कार किया हो, परमेश्वर ने उनका तिरस्कार नहीं किया है, वरन अब यहूदियों को भी वही अवसर उपलब्ध है जो गैर-यहूदियों को उपलब्ध है। उनके तिरस्कार से परमेश्वर की दया और अनुग्रह का दायरा सिमट नहीं गया था वरन और व्यापक हो गया था।

   इस बात का एहसास करते ही पौलुस परमेश्वर की महानता के प्रति गद गद हो जाता है और उस से परमेश्वर की प्रशंसा के स्वर फूट निकलते हैं: "आहा! परमेश्वर का धन और बुद्धि और ज्ञान क्या ही गंभीर है! उसके विचार कैसे अथाह, और उसके मार्ग कैसे अगम हैं!" (रोमियों 11:33)

   परमेश्वर की युगों तक के लिए बनाई गई योजना को पहचानते ही उस योजना की महानता के सामने पौलुस की अनसुनी प्रार्थनाएं और अनसुलझे रहस्यों की गुत्थी तुरंत महत्वहीन हो गई। वह अनसुनी प्रार्थना ही पौलुस को उस महान रहस्य के समक्ष ले कर आई जिसने पौलुस के मन को शान्त कर दिया, वह अपने और परमेश्वर के दृष्टिकोण के अन्तर को समझने पाया, और अपनी उस अनसुनी प्रार्थना को लेकर उसकी व्यथा जाती रही।

   क्या आप भी किसी ऐसी ही अनसुनी प्रार्थना को लेकर जूझ रहे हैं, व्याकुल हैं? प्रार्थना जो आपको तो बिलकुल जायज़ और उचित लगती है परन्तु परमेश्वर की ओर से उसका कोई उत्तर आ नहीं रहा है। परमेश्वर पर विश्वास बनाए रखिए और उसके हाथों में सब कुछ छोड़ दीजिए। उसकी योजनाएं सिद्ध और उसकी विधियाँ अद्भुत हैं; वह जो करता है, भले ही के लिए करता है। - फिलिप यैन्सी


प्रार्थना विश्वास में चलते रहने और थकित ना होने की सामर्थ देती है।

क्योंकि मेरी और तुम्हारी गति में और मेरे और तुम्हारे सोच विचारों में, आकाश और पृथ्वी का अन्तर है। - यशायाह 55:9

बाइबल पाठ: रोमियों 11:26-36
Romans 11:26 और इस रीति से सारा इस्त्राएल उद्धार पाएगा; जैसा लिखा है, कि छुड़ाने वाला सियोन से आएगा, और अभक्ति को याकूब से दूर करेगा। 
Romans 11:27 और उन के साथ मेरी यही वाचा होगी, जब कि मैं उन के पापों को दूर कर दूंगा। 
Romans 11:28 वे सुसमाचार के भाव से तो तुम्हारे बैरी हैं, परन्तु चुन लिये जाने के भाव से बाप दादों के प्यारे हैं। 
Romans 11:29 क्योंकि परमेश्वर अपने वरदानों से, और बुलाहट से कभी पीछे नहीं हटता। 
Romans 11:30 क्योंकि जैसे तुम ने पहिले परमेश्वर की आज्ञा न मानी परन्तु अभी उन के आज्ञा न मानने से तुम पर दया हुई। 
Romans 11:31 वैसे ही उन्होंने भी अब आज्ञा न मानी कि तुम पर जो दया होती है इस से उन पर भी दया हो। 
Romans 11:32 क्योंकि परमेश्वर ने सब को आज्ञा न मानने के कारण बन्द कर रखा ताकि वह सब पर दया करे।
Romans 11:33 आहा! परमेश्वर का धन और बुद्धि और ज्ञान क्या ही गंभीर है! उसके विचार कैसे अथाह, और उसके मार्ग कैसे अगम हैं! 
Romans 11:34 प्रभु की बुद्धि को किस ने जाना या उसका मंत्री कौन हुआ? 
Romans 11:35 ​या किस ने पहिले उसे कुछ दिया है जिस का बदला उसे दिया जाए। 
Romans 11:36 क्योंकि उस की ओर से, और उसी के द्वारा, और उसी के लिये सब कुछ है: उस की महिमा युगानुयुग होती रहे: आमीन।

एक साल में बाइबल: 
गिनती 25-27