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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

निर्भर


   जब बच्चे कुछ अपने आप करना सीखते हैं और करने लगते हैं, जैसे अपने आप तैयार होना, अपने दांत खुद साफ करना, जूतों के तसमे स्वयं बांधना, साइकिल चलाने लगाना इत्यादि तो माता-पिता आनन्दित होते हैं। हम व्यस्क लोग भी किसी पर निर्भर नहीं होना चाहते; हम अपने खर्चे खुद उठाना चाहते हैं, अपने घरों में रहना चाहते हैं, अपने निर्णय स्वयं लेना चाहते हैं, आदि। यदि अनायास ही कोई चुनौती सामने आ जाती है तो किसी की सहायता लेने से पहले हम उस विषय पर किसी सहायता की पुस्तक पढ़कर मार्ग निकालने के प्रयास करते हैं।

   किंतु संसार की वासत्वकिता इससे उलट है; हम एक ऐसे संसार में जीते और रहते हैं जहां हमें एक दूसरे की सहायता की आवश्यकता होती ही है। एक के कार्य के लिए दुसरे के किसी उत्पाद का प्रयोग करना होता है, एक के स्वास्थ्य लाभ के लिए किसी अन्य की सहायता लेनी पड़ती ही है, एक को बढ़ने और उठने के लिए औरों के सहायक हाथों की आवश्यकता पड़ती ही है। इसीलिए किसी को सहायता देने के लिए तैयार रहना एक सदगुण माना जाता है। परन्तु यह जानते हुए भी, अपने स्वावलंबी होने के स्वभाव को निभाने और उसके साथ ही कार्य करने तथा जीवन बिताने से हम ना केवल औरों से दूर होने लगते हैं वरन हम अनजाने में ही अपने मनों में परमेश्वर से भी दूर होने लगते हैं, उसपर भी निर्भर रहने से कतराने लगते हैं। जबकि इसी निर्भरता की परमेश्वर को अपने लोगों से चाह रहती है। प्रभु यीशु ने अपने चेलों से कहा "...मुझ से अलग होकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते" (यूहन्ना १५:५)।

   नॉर्वे के एक धर्मशास्त्री ओले हैलस्बी ने कहा कि "परमेश्वर को ग्रहणयोग्य प्रार्थना का सिद्धांत है निस्सहायता"। जो अपने आप और संसार से जितना निस्सहाय होगा वह उतने ही अधिक सच्चे मन से प्रार्थना करेगा, उसकी प्रार्थना में परमेश्वर से पाने की उतनी ही अधिक लालसा होगी और ऐसी प्रार्थना ही वह प्रार्थना है जिसका उत्तर देने में परमेश्वर प्रसन्न होगा। परन्तु जो अपनी सामर्थ और योग्यता के दंभ में परमेश्वर के पास आएगा, उसकी प्रार्थना में समर्पण की भी कमी होगी और परमेश्वर से पाने की लालसा भी नहीं होगी, इसलिए उसकी प्रार्थना प्रभावी भी नहीं होगी। जैसे हम संसार में एक दुसरे पर निर्भर हैं वैसे ही यह संसार परमेश्वर पर निर्भर है।

   जब बच्चे बड़े होकर माता-पिता पर निर्भर होना कम कर देते हैं तो इसे बड़े होने की निशानी और एक स्वाभाविक बात मान कर माता-पिता स्वीकार तो करते हैं, परन्तु साथ ही उनके दिल में एक कसक भी उठती है। परन्तु परमेश्वर पिता के साथ यह लागू नहीं है। हम कभी उसपर निर्भर होने में कम नहीं हो सकते। यदि हम यह सोचते और मानने लगते हैं कि किसी समय या किसी बात में अब हमें परमेश्वर पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है, तो यह हमारा भ्रम है जो हमें ही नुकसान पहुँचाएगा।

   परमेश्वर पर हर बात और हर विषय में निर्भरता ही जीवन में सफलता की कुंजी है और प्रार्थना उस निर्भरता की घोषणा है। - फिलिप यैन्सी


ऐसे भाव के साथ प्रार्थना करें कि मानो आपका जीवन ही उस प्रार्थना पर निर्भर है। सच मानिए यही सत्य है।

मैं दाखलता हूं: तुम डालियां हो; जो मुझ में बना रहता है, और मैं उस में, वह बहुत फल फलता है, क्‍योंकि मुझ से अलग होकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते। - यूहन्ना १५:५

बाइबल पाठ: यूहन्ना १५:१-८
Joh 15:1 सच्‍ची दाखलता मैं हूं, और मेरा पिता किसान है। 
Joh 15:2  जो डाली मुझ में है, और नहीं फलती, उसे वह काट डालता है, और जो फलती है, उसे वह छांटता है ताकि और फले। 
Joh 15:3  तुम तो उस वचन के कारण जो मैं ने तुम से कहा है, शुद्ध हो। 
Joh 15:4  तुम मुझ में बने रहो, और मैं तुम में: जैसे डाली यदि दाखलता में बनी न रहे, तो अपने आप से नहीं फल सकती, वैसे ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते। 
Joh 15:5 मैं दाखलता हूं: तुम डालियां हो; जो मुझ में बना रहता है, और मैं उस में, वह बहुत फल फलता है, क्‍योंकि मुझ से अलग होकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते। 
Joh 15:6 यदि कोई मुझ में बना न रहे, तो वह डाली की नाई फेंक दिया जाता, और सूख जाता है; और लोग उन्‍हें बटोरकर आग में झोंक देते हैं, और वे जल जाती हैं। 
Joh 15:7  यदि तुम मुझ में बने रहो, और मेरी बातें तुम में बनी रहें तो जो चाहो मांगो और वह तुम्हारे लिये हो जाएगा। 
Joh 15:8  मेरे पिता की महिमा इसी से होती है, कि तुम बहुत सा फल लाओ, तब ही तुम मेरे चेले ठहरोगे।

एक साल में बाइबल: 
  • यर्मियाह ९-११ 
  • १ तिमुथियुस ६