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सोमवार, 29 मार्च 2010

निर्णय

एक समय मैंने एक जैसे लगने वाले कुछ शब्दों के अर्थ अपनी कॉपी पर लिखकर रखे, अपने आप को याद दिलाते रहने के लिये कि उन सबका अर्थ एक ही नहीं है। वे शब्द हैं, "आशय, विचार, राय, अभिरुचि, विश्वास, निश्चय।" अपनी राय को एक निश्चय के स्तर तक उठाने का प्रलोभन प्रबल हो सकता है, परन्तु रोमियों १४ हमें सिखाता है कि ऐसा करना गलत है।

पहली शताब्दी में यहूदी व्यवस्था पर आधारित धार्मिक परंपराएं धार्मिक नेताओं की दृष्टि में इतनी महत्वपूर्ण थीं कि वे यीशु को, जो व्यवस्था का जीवित मनवीय प्रतिरूप था, पहचान नहीं सके। उनका ध्यान छोटी छोटी बातों पर इतना केंद्र्ति रहता था कि वे प्रधान बातों की उपेक्षा कर जाते थे (मत्ती २३:२३)।

बाइबल हमें सिखाती है कि हमें अपने विश्वासों और निश्चयों को भी प्रेम के नियम के आधीन करके रखना है (रोमियों १३:८-१०; गलतियों ५:१४; याकूब २:८) क्योंकि प्रेम ही सारी व्यवस्था की पूर्ति है और परस्पर मेल, शांति और एक दूसरे को उभारने का रास्ता बनाता है।

यदि हमारी अपनी राय अथवा पसन्द, हमारे लिये, परमेश्वर द्वारा कही गई और उसकी नज़र में मूल्यवान किसी भी बात से अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है तो समझ लें कि हमने अपने ’विश्वास’ की मूर्तियां अपने हृदय में स्थापित कर लीं हैं। मूर्ति पूजा एक बड़ा पाप है क्योंकि वह प्रथम और सबसे मुख्य आज्ञा को तोड़ता है: "तू मुझे छोड़ किसी दूसरे को ईश्वर करके न मानना" (निर्गमन २०:३)।

हम यह निश्चय करें और ठान लें कि हम अपने निज विचारों को परमेश्वर के विचारों से बढ़कर नहीं रखेंगे, ताकि हमारे विचार दूसरों के लिये ठोकर का कारण न बने और उनसे किसी के लिये यीशु के प्रेम को जानने में अवरोध न हो। - जूली ऐकरमैन लिंक


संसार में सबसे बड़ी शक्ति व्यवस्था कि मजबूरी नहीं, परन्तु प्रेम की करुणा है।


बाइबल पाठ: रोमियों १४:१-१३


तुम यह ठान लो कि कोई अपने भाई के सामने ठेस या ठोकर खाने का कारण न रखे। - रोमियों १४:१३


एक साल में बाइबल:
  • न्यायियों ७, ८
  • लूका ५:१-१६